मेरी पूजा के हर सौपान
मुझसे छूठ जाते है..
मेरी आगाध श्रद्धा पात्र
अक्सर रुठ जाते है..
समझ मुझको नहीं आता
मै मन्दिर देव क्या बदलू..
स्वप्न सुन्दर सजीले आ
धरातल टूट जाते है..
भंवर मे डूबती नैया का
जो पतवार से नाता..
अगर विस्वास चोटिल हो
किनारे डूब जाते है..
मेरा हाकिम ही मेरे मर्ज
का बनकर सबब आया..
दवा देना बिमारे मर्ज
को जो भूल जाते है..
झुकाते सर रहे सजदे मे
जिस दातार के आगे..
गुनाह अपने सभी कर्मों
के वो कबूल जाते है..
मेरा साया ही दुश्मन बनके
मेरे साथ चलता है..
मुहाफिज ही यहां पर
आबरु को लूट जाते है..
मुझे बस "धीर" उन
परछाईयों से डर सा लगता है..
जख्म यांदों के झरने
आंख से जो फूट जाते है..
धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"
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