गिरगिट से रंग बदलती है, इंसानों की पहचान यहां..
रिश्तें है रेल की पटरी से, संग चलकर भी अंजान यहां..
व्यक्तित्व बचा कहां व्यक्ति का, बदले बदले हालात हुऐ..
अपनी पहचान बचाने को, लिये फिरता हथेली जान यहां..
समझौता कैसे कर पाता अपने सिद्धांत उसूलों का...
चंद सिक्कों मे बिकते देखा जब लाखों का ईमान यहां..
बेईमान हजारों बैठे है सत्ता के इन गलियारों मे..
अपमानित होता लोकतंत्र, कुपात्रों का सम्मान यहां..
दादुर वक्ता के मध्य भला कैसे अपनी कोई बात रखें..
बस " धीर" खामोशी है काफी, चुप रहना ही समाधान यहां..
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