Thursday, February 23, 2023

बस मां का दूध लजाते है

 जब सामाजिक सहिष्णुता छलनी होने लगती है,,

सत्ता की अपराधी से जब मिलनी होने लगती,,

जब भारत मे अफजल के भी नारे लगने लगते है,,

पाकिस्तान आबाद रहे जयकारे लगने लगते है,,

जेएनयु  जब गढ बन जाये भारत के गद्दारों का,,

घर घर अफजल निकलेगा इन देशद्रोही नारो का,,

खाते है इस देश का लेकिन पाकिस्तानी लगते है,,

उनके हर जज्बात मुझे बस कारस्तानी लगते है,,

भारत मां के हर आंशु तो तब शर्मसार हो जाते है

जब राहुल कजरी उमर संग मुगली बिरयानी खाते है,,

इससे अच्छा मर जाते वो बस डूब के चुल्लु पानी मे,,

किचिंत भी शर्म नही आई संग गद्दारों के जाने मे,,

जाने कैसी अब नजर लगी संसद के इन गलियारों को,,

इशरत बेटी सी लगती है इन खाकी के मक्कारो को,,

इतना सुनले जो भारत की पावनता को गिरराते है,,

दिन रात जो घृणित कृत्यों से बस मां का दूध लजाते है,,

गर घर घर से अफजल निकला तो दर दर जूत लगायेगे,,

बकरो की इन औलादों को हम सिहं का मूत पिलायेगे,,

ये "धीर" राम का सेवक है कण कण मे राम समाता है,,

यमलोक दिखादो झट उनको जो भारत पर गुर्राता है,,

धीरेन्द्र गुप्ता"धीर"


Tuesday, February 14, 2023

अपना बना ले कोई

आज की रात मेरा दर्द चुरा‌ ले कोई..

चंद लम्हों के लिये अपना बनाले कोई..

तीर हूं लौट के तरकश मे नहीं आऊंगा..

मै नजर मे हूं निशाना तो लगाले कोई..

राख हूं, खाक हूं, उम्मीद हूं एक टूटी हुई..

मै संवर जाऊंगा ख्वाबों मे सजाले कोई..

तेरी खुश्बु मेरी यांदों से क्यो नही जाती..

जैसे अहसास हवाओं का बहा ले कोई..

बेडा दरियां के किनारों पे डूबा बैठे हम..

बैठे जिस डाल पे आरी‌ यूं चलाले कोई..

मेरा मुर्शिद ही मेरी जान का दुश्मन निकला..

बडी आफत मे पडी जान बचाले कोई..

"धीर" कौडी मे बिके लाख मे बिकने वाले..

जैसे हस्ती सरेबाजार मिटाले कोई..


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

खंज़र भी साथ रखते है..

 दोगले लोग है बातों मे बात रखते है..

गले मिलते है तो खंजर भी साथ रखते है..

सुना है शहर की गलियां भी तंग होने लगी..

फासले दरमियां ही आस पास रखते है..

बिमार था मुझे दवा की जगह जख्म दिये..

यार कुछ ऐसे भी जिगरी है खास रखते है..

खैरियत पूछते है‌ दर्द ही देने वाले..

काले दिल है जुबानी मिठास रखते है..

मेरी तलाश मे हमराज ही मेरा निकला..

छुपा के दिल मे हजारों ही राज रखते है..

कैसे पहचानता फितरत छुपे नकाबों की..

इतने शातिर है की बदली आवाज रखते है..

मृगमारीच मे फंसकर बडे हैरान से है..

"धीर" उलझन मे भी होशो हवास रखते है..

दीपावली विशेष

हृदय के दीप मे सदभाव की ज्योति जगा लेना..

दीवाली प्रेम और मृदभाव‌ से मिलकर मना लेना..

तल्ख सम्बन्ध से जुडती कहां है प्रीत की डोरी..

गजब मौका है अपने रुठे हो उनको मना लेना..

अहम से दूर रहकर संगठित परिवार सारा हो..

यहां बिखरे हुऐ रिश्तों की बस माला सजा लेना..

यहां अज्ञानताओं का घटाघुप‌ सा अंधेरा है..

दीप आशाओं का लेकर अंधेरे मे जला लेना..

स्याह रातों की दहरी पर उजाले की जो हो दस्तक..

किसी रोते के आंशु पोछ घर अपना सजा लेना..

शकून मिलेगा इबादत सा जरा कर देखों..

किसी रोते हुऐ को " धीर" पल दो पल हंसा लेना...


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

छूट जाते है...

मेरी पूजा के हर सौपान 

मुझसे छूठ जाते है..

मेरी आगाध श्रद्धा पात्र 

अक्सर रुठ जाते है..

समझ मुझको नहीं आता 

मै मन्दिर देव क्या बदलू..

स्वप्न सुन्दर सजीले आ 

धरातल टूट जाते है..

भंवर मे डूबती नैया का

 जो पतवार से नाता..

अगर विस्वास चोटिल हो 

किनारे डूब जाते है..

मेरा हाकिम ही मेरे मर्ज 

का बनकर सबब आया..

दवा देना बिमारे मर्ज 

को जो भूल जाते है..

झुकाते सर रहे सजदे मे 

जिस दातार के आगे..

गुनाह अपने सभी कर्मों 

के वो कबूल जाते है..

मेरा साया ही दुश्मन बनके

 मेरे साथ चलता है..

मुहाफिज ही यहां पर 

आबरु को लूट जाते है..

मुझे बस "धीर" उन 

परछाईयों से डर सा लगता है..

जख्म यांदों के झरने 

आंख से जो फूट जाते है..


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

कोई बख्शीश देती है...

 आईनों पर सजी धूले ,लकीरे खींच देती है..

ज्यो बंजर खेत को ,बारिश की बूंदे सींच देती है..

यहां है तलखिया इतनी की ,दिल मिलने नहीं देती..

लगे हर जख्म पर चोटे, हजारों टीस देती है..

मरहम लेकर वो आया, रहनुमा कुछ इस तरह घर मे..

तवायफ कोठे पर जैसे , कोई बख्शीस देती है..

वो मेरे साथ रहता था‌ मेरा , बनकर वो हमसाया..

दुष्ट शुकुनी की ये चाले, ही अक्सर सीख देती है..

बदलते दौर मे खुद को ,  बुलंद करले जो जीना है..

मदद की बानगी ऐसी की , जैसे भीख देती है..

यहां जो यारी है उनसे ही , बस खुद को बचाना है..

बढा कर हाथ अक्सर जो, मदद का खींच देती है..

उजाले तक ही साया साथ, देता है सफर सुनले..

ये जीवन पाठशाला ही, सबक बस "धीर" देती है


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

गवाही कौन देता है

बदलते वक्त मे चीजें ,पुरानी कौन देता हैं..

जो मुद्दें खाक है उनको, कहानी कौन देता हैं..

मुकदमे कब सुलझते है,अदालत की तहरीरों में..

यहां सच्चें मुकदमों में ,गवाही कौन देता हैं..

शहर की तंग गलियों मे ,बसावट देख पुरखों की..

खण्डहर होती इमारत को ,जवानी कौन देता हैं..

रहीसी देख हाकिम की, शहर के शख्स है हैरान..

गर्त मे डूबे बेडे को, किनारे कौन देता हैं..

जो मुफलिस थे तो अक्सर ,ही सहारे खूब मिलते थे..

बदलते वक्त पर सम्भलें ,सहारा कौन देता हैं..

आईना अब कहां सूरत ,दिखाता है असल जैसी..

दिखावे के चढे रंगों को , वाणी कौन देता है..

रेत पर डाल कर मछली, मजा लेते है जी भरकर..

तडफते " धीर" को सहरा ,मे पानी कौन देता है..


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

छीन लेता है...

जमाना हर खुशी ओ साज ,अक्सर छीन लेता है..

हंसी लब की शकु दिल का, नजारा छीन लेता है..

रवायत है अनोखी और ,चलन भी है बेगैरत सा..

वो शातिर इतना है आंखे ,ईशारे छीन लेता है..

धडकते दिल से वो बेधडक,और महफूज है कितना..

यहां हर देव पत्थर का, मिनारे छीन लेता है..

बिलखती भूख रोते पेट की,बस दास्ता इतनी..

तडफता रुदन शासन से ,सिहांसन छीन लेता है..

यहां कानून की जद मे ,सितम सरकार करती है..

दिवारों पर लिखा फतवा ,निवाला छीन लेता है..

जिन्हें चुनकर मुल्क ने ,अपना रहनूमा बनाया था..

वो बनके रहनुमा छत ,ओर साया छीन लेता है..

यहां अब " धीर" मतलब से ,तुम्हारी मेरी यारी है..

खुदा भी मौत देकर अब ,मजारे छीन लेता है..


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

भ्रम पाल कर बैठे है..

कुछ वहम हुआ है अदनों को, वो भ्रम पाल कर बैठे है...

पतझड के चलन देख माली , क्यो दर्ख पाल कर बैठे है..

किरदारों ‌की इस नगरी मे, मुखटों के चलन हजारों है..

उठते जज्बातों के रण मे, हम सब्र पाल कर बैठे है..

जीवनपथ की पगडंडी पर, रिश्तों का खेल अनोखा है..

मांझी टूटी पतवारों पर मांझी, ज्यो दर्प पाल कर बैठे है..

लगडे घोडे पर दांव लगा,  जो रेस जीतना चाहते है..

शातिर वो सकल जुआरी है ,जो कर्ज पाल कर बैठे है..

शकुनि की चालों से खुद को ,कैसे महफूज रखे कोई..

रिश्तों की खोती तपीश देख ,जो बर्फ पाल कर बैठे है..

जो डरते थे विषदंतों से ,अब जहर उगलते देखे है..

मुषक भी " धीर" जमाने में ,अब सर्प पाल कर बैठे है...

चुप रहना ही समाधान यहां..

 गिरगिट से रंग बदलती है, इंसानों की पहचान यहां..

रिश्तें है रेल की पटरी से, संग चलकर भी अंजान यहां..

व्यक्तित्व बचा कहां व्यक्ति का, बदले बदले हालात हुऐ..

अपनी पहचान बचाने को, लिये फिरता हथेली जान यहां..

समझौता कैसे कर पाता अपने सिद्धांत उसूलों का...

चंद सिक्कों मे बिकते देखा जब लाखों का ईमान यहां..

बेईमान हजारों बैठे है सत्ता के इन गलियारों मे..

अपमानित होता लोकतंत्र, कुपात्रों का सम्मान यहां..

दादुर वक्ता के मध्य भला कैसे अपनी कोई बात रखें..

बस " धीर" खामोशी है काफी, चुप रहना ही समाधान यहां..

Wednesday, February 1, 2023

ख्वाबों मे सजाले कोई

आज की रात मेरा दर्द चुरा‌ ले कोई..*

*चंद लम्हों के लिये अपना बनाले कोई..*

*तीर हूं लौट के तरकश मे नहीं आऊंगा..*

*मै नजर मे हूं निशाना तो लगाले कोई..*

*राख हूं, खाक हूं उम्मीद हूं एक टूटी हुई..*

*मै संवर जाऊंगा ख्वाबों मे सजाले कोई..*

*तेरी खुश्बु मेरी यांदों से क्यो नही जाती..*

*जैसे अहसास हवाओं का बहा ले कोई..*

*बेडा दरियां के किनारों पे आ डूबा बैठे हम..*

*बैठे जिस डाल पे आरी‌ यूं चलाले कोई..*

*मेरा मुर्शिद ही मेरी जान का दुश्मन निकला..*

*बडी आफत मे पडी जान बचाले कोई..*

*"धीर" कौडी मे बिके लाख मे बिकने वाले..*

*जैसे हस्ती सरेबाजार  मिटाले कोई..*


*धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"*

9414333130

अभिमन्यु मारे जाते है...

*कुचक्र सदा घेरे रहते अपने ही घात लगाते है..*

*यहां चक्रव्यूह की रचना मे अभिमन्यु मारे जाते है..*

*नर महता के आगे अक्सर पंचाली पर ही दांव लगे..*

*यहां भरी सभा मे चीरहरण अक्सर स्वीकारे जाते है..*

*शर शैया लेटे भिष्म विवश गुरु द्रोण कुचक्र चलते हो..*

*वहां बर्बरीक से अदम्य वीर छल मे ही वारे जाते है..*

*जिद के आगे पंचाली के लाशों के ढेर लगे भारी..*

*छल, कपट, दम्भ से विवश वीर बेमौत संहारे जाते है..*

*है इन्द्रप्रस्थ सी मोहमाया लक्षाग्रह से षडयंत्र यहां..*

*अनुशासन सुचिता पे अक्सर अवसर भारी पड जाते है..*

*अंधे के अंधे होते है जहरीले शब्द  कटीले से..*

*मर्यादा खोते शब्द यहां महाभारत ही करवाते है..*

*अपने बैठे हो अपनों पर पल पल जो घात लगाने को..*

*पासों की चालों से शकुनि कौरव कुल को मरवाते है..*

*अज्ञात वाश से जीवन मेवअपनी पहचान छुपाले जो..*

*वो " धीर" श्रेष्ठ योद्धा जग मे इतिहास गिनाये जाते है..*


*धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"*

9414333130

रावण को पलते देखा है...

मैने रावण के हाथों रावण को जलते देखा है..

कलियुग मे सीता को अक्सर श्रीराम ही छलते देखा है..

अब सभी जटायु मौन हुऐ सीता को कौन बचायेगा..

मैने हर गली चौराहे पर रावण को‌‌ पलते देखा है..

बाली मिलते है गली गली सुग्रीव की नारी हरने को..

नारी को समझ खिलौना सा बालक सा मचलते देखा है..

अंगद जैसे अब वीर कहां वो साहस कहां से लाओगें..

बन दूत टिकाये चरण कमल सिहांसन हिलते देखा है..

हनुमान सी भक्ति का जग मे दूजा ना कोई उदाहरण है..

सोने की सुन्दर लंका को अग्नि मे सिमटते देखा है..*

सुर्पनखा के यौवन से किंचित भी ना भटकाव हुआ.*

त्रिया के चरित्र विफल देखे बस नाक को कटते देखा है..*

अरिदल मे बैठा वीभीषण अपनों पर दांव लगाने को..*

इतिहास गवाह है कुल नाशक इतिहास बदलते देखा है.*

यहां "धीर" बदलते हर युग में नारी की अग्नि परीक्षा है..*

कानाफूसी परिपाटी पर  श्रीराम को चलते देखा है..*


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

9414333130

खंजर भी साथ रखते है...

दोगले लोग है बातों मे बात रखते है..

गले मिलते है तो खंजर भी साथ रखते है..

सुना है शहर की गलियां भी तंग होने लगी..

फासले दरमियां ही आस पास रखते है..

बिमार था मुझे दवा की जगह जख्म दिये..

यार कुछ ऐसे भी जिगरी है खास रखते है..

खैरियत पूछते है‌ दर्द ही देने वाले..

काले दिल है जुबानी मिठास रखते है..

मेरी तलाश मे हमराज ही मेरा निकला..

छुपा के दिल मे हजारों ही राज रखते है..

कैसे पहचानता फितरत छुपे नकाबों की..

इतने शातिर है की बदली आवाज रखते है..

मृगमारीच मे फंसकर बडे हैरान से है..

"धीर" उलझन मे भी होशो हवास रखते है..


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

9414333130

मेरी मां

मेरी हर गलतियों को मां

हमेशा टाल देती है..

गिले शिकवे हजारों दिल से 

मां निकाल देती है..

यहां उलझन हजारों है

पकड के अंगुलीयां मेरी..

मै गिरता हूं मुझे हर हाल‌

मां सम्भाल लेती है...

कदम गर लडखडाएं जो

मेरी मां साथ रहती है..

बडी सिद्दत से मां बच्चों ‌को 

अपने पाल लेती है..

मुसीबत लाख हो सर पर

मुझे चिन्ता नहीं रहती..

वो अपने आप से हर 

मुश्किलों को ढाल लेती है..

उम्र के पायदानों से " धीर"

बूढा नहीं होता..

थकावट मे मेरी मां चूम‌

जो मेरा भाल लेती है..


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

9414333130

जाती के जंजाल....

तुम जाती के जालों मे 

अटके हो कीट पतंगों से..

जाती के दलदल मे भटके 

हो बुद्धिहीन मलंगों से..

हर पंचवर्ष की बारिश मे 

मेढक जो बाहर आते है..

जो कभी हुऐ ना जाती के 

वो जाती के गुण गाते है..

जिनका सारा जीवन गुजरा 

भाई से भाई लडाने मे..

वो बनके हितैषी आ टपके 

वोटो की चोट लगाने मे..

अचरज है शिक्षाहीन यहां 

शिक्षित तक को भरमाते है..

मुर्ख बन बुद्धिमान यहां 

जाती की रटन लगाते है..

सब जानते है ये जहर 

हमें विकसित कब होने देता है..

जाती के चक्कर मे वोटर 

कांटे ही बोने देता है..

बेटी रोटी के नाते मे जाती 

का मान जरूरी है..

लेकिन जब चयन करो नेता 

तो होना ज्ञान जरुरी है..

जातिवादी परिपाटी मे 

विकास अवरुद्ध हो‌ जाता है..

जनता के हक का पैसा ही 

नेता बस लूट के खाता है..

अज्ञानी ओर बेदम नेता 

सत्ता का हवाला देते है..

सरकार हमारी अभी नहीं 

हर बार बहाना देते है..

बस " धीर" कहे इतना सुनलो 

निकलो जाती के जालों से..

दल,बल, जाती का मोह त्याग 

हम जोडे हाथ दलालों से..


धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"

9414333130



अपना बनाले कोई

आज की रात मेरा दर्द चुरा‌ ले कोई.. चंद लम्हों के लिये अपना बनाले कोई.. तीर हूं लौट के तरकश मे नहीं आऊंगा.. मै नजर मे हूं निशाना तो लगाले कोई...