जो सुचिता के ओढ दुशाले सुचिता के पर लगा रहे है..
खा गीता की सौगंध खुद का महिमामण्डन करा रहे है..
खोट ढूढते औरों मे खुद पाक साफ घोषित करते है..
बस ऐसे ही लोग यहां पर सारे जग को चला रहे है..
पोस्टरों पर लगी हो फोटो बराबरी का हक बतलाते..
बिना पंख के उडान ऊंची नादान पंक्षी लगा रहे है..
कुछ बुलबलों को वहम है भारी कुऐं के मेढक से हो गये है..
चंद नैनसुख लटके झटकों को ही भजन भाव सा बता रहे है..
अहम वहम से जो दूर जितना वो उतनी इज्जत भी पा रहा है..
यहां जलन से जले हुऐ ही जले हुऐ को जला रहे है..
मगरमच्छ से बहां के आशु अक्सर सभी को जो कोसते है..
नहीं किये पर अफसोस जिनको सजा कर्म की वो पा रहे है..
वो " धीर" बैठा मदारी बनकर सबकी रगों को वो जानता है..
बनाके बंदर वो अपने दर पर जो जैसा वैसा नचा रहे है..