आस्तीन के सांप ना पालों सुचिता सपट पिटारों मे..
इनकी गिनती होती आई लोमड, काग, सियारों मे..
जिस थाली मे खाते है उसमे ही छेद बनाता है..
हम भाई भाई करते है, पीछे से दांव लगाता है..
कुत्तों को ज्यो घृत, गधों को महल नहीं पच पाता है..
चमगादड़ के सर पर जैसे फूल नहीं सज पाता है..
बोलो सेकुलर जालों से कब तक बहलाते जाओगे..
बोलो भाईचारे की कीमत तुम देकर जान चुकाओंगे..
कुछ तो सीख लिया होता अपने इतिहास पुराने से..
कुछ तो सबक लिया होता, पद्मावती, राणा, सांगों से..
ये छदम भेष मे छुपे हुऐ बहुरंगी सांप सपोले है..
ये लाख बहादुर बनते हो लेकिन कद मे बस बौने है..
ये छदम, छलावा, कपट, जाल मे रंगे रहे जेहादी है..
अपनी बहनों संग विवाह रचे, झुठे बस अवसरवादी है..
अब " धीर" समय है कुलषित सब धाराओं का मुख मोडेंगे.
विषधर जहरीले नागों का चुन चुनकर हम फन तोडेंगे..
अब समय नहीं है दुष्टों को अपने अनुष्ठान बुलाने का..
फनकार नहीं फन कार है ये, इनको सत्कार दिलाने का..
अब उठो, जगो, ऐलान करो, कुत्तों से प्रीत नहीं होगी..
जगराते, किर्तन, चौकी मे पिछली कोई रीत नहीं होगी..
तुम पांच वक्त के नामाजी अल्लाह के प्यारे बने रहो..
उनको ही पेश करों नगमे उनके ही तारे बने रहो..
धीरेन्द्र गुप्ता " धीर"