मन पीडा से भरा हुआ हो, मंगल गीत नहीं भाते..
पतझड के मौसम मे रागी राग मल्हार नहीं गाते..
दिन के लाख उजाले मन की रात नहीं हर सकते है..
सूखे दरखत पर पत्ते जो लौट बहार नहीं आते..
अपनी अपनी मृग मारीचा, अपने अपने सपने है..
मुर्दा बस्ती के आंगन मे अब इंसान नहीं आते..
कुचक्रों के तोड चक्रव्यूह झट से पार निकलना हो..
कायरता के मरू स्थल पर अब जाबांज नहीं आते..
हो बस्ती के हर कोने पर स्वर्ण मृग की अभिलाषा...
लडने इन मारीचों से अब वो श्रीराम नहीं आते..
अब मेले, पनघट, उत्सव सब सूने सूने लगते है..
सिमटे रिश्तों के बंधन सब, अब परिवार नहीं आते..
लिखनी थी कुछ रीत पुरानी " धीर" नये अंदाजों मे..
अब शब्दों पर ग्रहण लगा है वो जज्बात नहीं आते..
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