हार गया वो कुदरत से वो ग़ुरबत में भी ज़िंदा है
खुले गगन में उड़ना चाहे वो पर कटा परिंदा है...
बेच दिया पुश्तैनी बंगला माँ की सांसे पाने को
लेकिन माँ को बचा ना पाया वो खुद पर शर्मिंदा है...
माँ की अर्थी और कफ़न का कैसे हो इंतजाम भला
बेच दिये आंसू तक अपने मुफलिसी का कारिन्दा है...
कैसा कान्धा कैसा आँचल अब यादे भर शेष रही
वक़्त कही खुशियों का घर है और कही दरिंदा है...
वो वसुधा का बना बिछौना फलक बदन पर लेता ओढ़
"धीर" स्वपन में रोटी कपडा, फुटपाथी वाशिंदा है............
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