Thursday, December 16, 2010
"बदकिस्मत की चंद लकीरे हाथो में"
फूल की मानिद हँसता बचपन कैद हुआ चंद हाथो में
रूठा वक़्त, समय भी छूटा तकदीरे बंद हाथो में...
ढाबो पर बर्तन घिसता है वक़्त मिला सो जाता है
शेष बची है बदकिस्मत की चंद लकीरे हाथो मे...
पिता की चाहत, माँ की लोरी, यादें भूली बिसरी सी
छिप-छिप कर वो रो लेता है रख के आँखे हाथो में....
मन्नत करता है बाबूजी भूख लगी कुछ खाना दो
रख देता ढाबे का मालिक चंद निवाले हाथो में...
अच्छी किस्मत होती है नादान भला वो क्या जाने
जिसकी किस्मत में जकड़ी है सख्त जंजीरे हाथो में...
खेलने, खाने, और पढने की उम्र गुजारी ग़ुरबत से
"धीर" लिखा क्या क्या किस्मत में पढ़ लेना सब हाथो में..........
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डर लगता छदम हत्यारे से..
हमने कितने सीस कटाये, झूठे भाईचारे मे.. कुर्बानी का बोझ चढा है, भाई भाई के नारे मे.. गुरु गोविंद सिंह के बेटे हो या हो प्रताप की कुर्बानी.. ...
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वो मयखाने के पैमाने में सब खुशिया लुटा बैठा भरी मांगे,खनकती,चूडिया, बिंदिया लुटा बैठ...
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