वो मयखाने के पैमाने में सब खुशिया लुटा बैठा
भरी मांगे,खनकती,चूडिया, बिंदिया लुटा बैठा......
फसा मझदार में साहिल पे कैसे वो भला जाता
गुजरते वक़्त की लहरों में वो कश्ती लुटा बैठा...
वो घर के बेचकर बर्तन रंगीली रात रखता है
जहा देखो अँधेरा है उजाले तक लुटा बैठा....
भला कैसे नजर आते तड़पते भूख से बच्चे
वो खारे पानी के हाथो सभी रिश्ते लुटा बैठा...
बदन को नापती वहशी निगाहों की खता क्या है
वो बंधन साथ फेरो का नजारों में लुटा बैठा....
वो पल-पल "धीर" नजरो में गिरा अपने परायो में
वो अपने हाथ से अपनी बनी हस्ती लुटा बैठा.......
3 comments:
सुन्दर रचना ..अच्छी पोस्ट है.. .. आज चर्चामंच पर आपकी पोस्ट है...आपका धन्यवाद ...मकर संक्रांति पर हार्दिक बधाई
http://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/blog-post_14.html
बदन को नापती वहशी निगाहों की खता क्या है
वो बंधन साथ फेरो का नजारों में लुटा बैठा....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...हरेक शेर लाज़वाब
वो पल-पल "धीर" नजरो में गिरा अपने परायो में
वो अपने हाथ से अपनी बनी हस्ती लुटा बैठा.......
......सच जो खुद को अपने हाथों मिटा से देता है उसका अपनों के नज़रों में मान कहाँ रह पाता है!
सुन्दर प्रस्तुति ....
आपको मकर संक्रांति के पर्व की शुभकामनायें
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