Thursday, July 3, 2025

हमने अक्सर चोटे खाई


 हमने अक्सर चोटे खाई, अपने ही  रखवालों से..

गले लगाकर खूब दुलारा, मिला जो मतलब वालों से..

खुदगर्जी के पेड घने है, जंगल द्वेष  विकारों का..

बोलों कैसे खुद को बचाता, चुभते रोज सवालों से..

अब चंदन भी हुआ विषैला, लिपटे काल भुजंगो से..

कैसे सच लडता झूठों से, हार गया नक्कालों से..

सर शैया पर भिष्म पडे है, चाल शिखंडी चलते है..

महाभारत का रण सृजित है इन्द्रप्रस्थ मोहजालों से..

वीरों की महफिल मे अक्सर चीर हरण हो जाते है..

अभिमन्यु बलिदान हुऐ है, राजनीतिक हर चालों से..

हर युग के प्रतिमानों पर जयचंदो की गद्दारी है..

कितने अकबर मारे जाते महाराणा के भालों से..

खामोशी की पगडंडी पर " धीर" गजब कोलाहल है..

मौन स्वीकृति की उलझन मे, मै उलझा हूं सालों से..

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