काली सघन अंधेरी राते, उजियारे से घबराती है..
जैसे खण्डर हाल इमारत, तेज हवा से थर्राती है..
भूख की चादर ओढ के सोया, आशाओं के बिछा बिछौने..
बैनर पर बस लगी है फोटो, योजनाएं यहां सरकारी है..
कितने बटन दबाये हमने, कितनी हाथों पर स्याही है..
बस नेताजी चुनने तक का, वो बेचारा अधिकारी है..
शिक्षा और चिकित्सा के वादें मानो तो सब नकली है..
असली तो चीखे घर घर की, आंगन बिखरी लाचारी है..
साहुकार का ऋण सुरसा सा, आंगन की खुशियां खा जाता..
लटकी है लाशे पीपल पर, मानवता ही शर्माती है..
गिद्धों की नगरी हो जैसे, वहशीपन सा है आंखों मे ..
रिश्तों के मैदान है खाली, सम्बंधों मे मक्कारी है..
धीर मरुस्थल से मन सबके, मृगमारिचा सबको घेरे..
जीवन के सब सफर अनिश्चित, शेष बची कुछ खुद्दारी है..
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